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कब से शुरू हो रहा है पितृ पक्ष…

राम अवतार तिवारी

पितरों की आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। इस बार पितृ पक्ष या महालय 29 सितंबर से शुरू होकर 14 अक्तूबर तक रहेगा। हर साल पितृ पक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरू होकर अश्विन मास की अमावस्या तक चलते हैं। इसे सर्व पितृ अमावस्या भी कहा जाता है। पितृ पक्ष का वास्तविक तात्पर्य अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा को प्रकट करना है।

सनातन धर्म के अनुसार आश्विन माह के कृष्ण पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है ,और शुक्ल पक्ष को मातृ पक्ष अथवा शक्ति पक्ष के रूप में मनाया जाता है। अर्थात अपने पितरों को तृप्त करके ही देवी देवताओं की भी कृपा सुलभ हो पाती है । जो पित्रों की उपेक्षा करके देवी देवताओं की पूजा करते हैं उन्हें उस पूजा से कोई लाभ नहीं मिल पाता है ।

क्योंकि पूर्व ऋण जब तक विद्यमान हैं तब तक और कृपा कैसे मिल सकती है । मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया,इसलिये पितृ ऋण की किस्त चुकाए बिना शक्ति की कृपा कैसे मिल सकती है ।

श्राद्ध का वर्णन सनातन धर्म के अनेक धार्मिक ग्रंथों में किया गया है । श्राद्ध पक्ष को महालय और पितृ पक्ष के नाम से भी जाना जाता है, यह पक्ष पित्रों का पर्व है जिसे पार्वण भी कहा जाता है ।

श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों, परिवार, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है. प्रतिवर्ष श्राद्ध को भाद्रपद माह की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तक मनाया जाता है ।

पूर्णिमा का श्राद्ध पहला और अमावस्या का श्राद्ध अंतिम होता है. जिस हिन्दु माह की तिथि के अनुसार व्यक्ति मृत्यु पाता है उसी तिथि के दिन उसका श्राद्ध मनाया जाता है. आश्विन कृष्ण पक्ष के 15 दिन श्राद्ध के दिन रहते हैं. जिस व्यक्ति की तिथि याद ना रहे तब उसके लिए अमावस्या के दिन उसका श्राद्ध करने का विधान होता है. हिंदू धर्म में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले जाते हैं, वह चाहे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, श्राद्ध पक्ष के समय अपनी दिवंगत तिथि में पृथ्वी पर आते हैं ।

अतः उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण एवं ब्राह्मण भोज किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है , अत: मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम से तर्पण करते हैं उसे हमारे पितर सूक्ष्म रूप में आकर अवश्य ग्रहण करते हैं ।

श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?
श्राद्ध का अर्थ : – ‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्’
‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए।
पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है।
पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

श्राद्ध-कर्म से व्यक्ति केवल अपने सगे-सम्बन्धियों को ही नहीं, बल्कि ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों व जगत को तृप्त करता है।
पितरों की तृप्ति को साक्षात् विष्णुपूजा ही माना गया है।

श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?
प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है?
कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं–

कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है।
तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है?
इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।

एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा–—

’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’

भगवान महाकाल ने बताया कि–—
विश्वनियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है।

इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं… और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं।

पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति–इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं….

इसलिए देवता और पितर गन्ध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्दतत्व से रहते हैं और स्पर्शतत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।

पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व –
जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न सार-तत्व (गंध और रस) है।
अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार ?

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं।
यदि पितर देवयोनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है।
यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
यदि पशुयोनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है….
नागयोनि में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, राक्षसयोनि में आमिषरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रुधिररूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं ।

जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है,
उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
यह सृष्टि क्रम है ।

और मानो ना मानो हम आज वर्तमान में हैं तो पूर्व में भी थे और यह भी सत्य है कि हम भी किसी के पितर हैं , आज हम जहाँ हैं वहां कई बार अनायास हमें कोई उपहार मिल जाता है । कोई आनंद दायक क्षण मिल जाते हैं तो शायद होता हो सकता है हमारे पूर्व जन्म के वंशजों ने हमारे लिए कोई श्राद्ध किया होगा ।
इसी तरह यह आज हम अपने पितरों का श्राद्ध कर रहे हैं तो हमारे भविष्य के वंशज भी हमारे लिए तर्पण दान आदि करेंगे । यह ऋणानुबंध मुक्ति तक अनवरत चलता रहता है और चलता रहना चहिये ।

श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने किए राजा दशरथ व पितरों के दर्शन ।

श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधिरूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं–
‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारणकर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छायारूप में सटकर उपस्थित थे।
ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघनकर वहां कैसे खड़ी रहती; इसलिए मैं ओट में हो गई।’

श्राद्ध में तुलसी की महिमा
तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरुढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।

पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न
श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है । अतः आराधना का यहां यह तात्पर्य कि पित्रों के निमित श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध अवश्य करें ।

आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।।
(यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)

यमराजजी का कहना है कि–

श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।
परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।
श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।

पितृगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।
श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता वरन् वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।

श्राद्ध न करने से होने वाली हानि

शास्त्रों में श्राद्ध न करने से होने वाली हानियों का जो वर्णन किया गया है, उन्हें जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शास्त्रों में मृत व्यक्ति के दाहकर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई।
परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दु:ख होता है।

आश्विनमास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे; यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोकपर आते हैं लेकिन जो लोग–पितर हैं ही कहां?–यह मानकर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं , उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं और बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बधियों का रक्त चूसने लगते हैं।
फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर- कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है।

मार्कण्डेयपुराण में बताया गया है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता है, उसमें दीर्घायु, नीरोग व वीर संतान जन्म नहीं लेती है और परिवार में कभी मंगल नहीं होता है।

धन के अभाव में कैसे करें श्राद्ध?

ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ, मेरी असमर्थता को देखते हुए मेरी भक्ति से ही तृप्त हों,प्रसन्न हों । हे भगवान श्री नारायण मेरे पित्रों को मुक्ति प्रदान करें ।

पितृपक्ष पितरों के लिए पर्व का समय है, अत: प्रत्येक गृहस्थ को अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार पितरों के निमित्त श्राद्ध व तर्पण अवश्य करना चाहिए।

साभार
🚩सनातन धर्म

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